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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


शांति-1 मुंशी प्रेम चंद


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इसके एक महीने बाद मुझे कारोबार के सिलसिले में विदेश जाना पड़ा और वहां मेरे अनुमान से कहीं अधिक—दो साल-लग गए। गोपा के पत्र बराबर जाते रहते थे, जिससे मालूम होता था, वे आराम से हैं, कोई चिंता की बात नहीं है। मुझे पीछे ज्ञात हुआ कि गोपा ने मुझे भी गैर समझा और वास्‍तविक स्थिति छिपाती रही।
विदेश से लौटकर मैं सीधा दिल्‍ली पहुँचा। द्वार पर पहुंचते ही मुझे भी रोना आ गया। मृत्‍यु की प्रतिध्‍वनि-सी छायी हुई थी। जिस कमरे में मित्रों के जमघट रहते थे उनके द्वार बंद थे, मकडियों ने चारों ओर जाले तान रखे थे। देवनाथ के साथ वह श्री लुप्‍त हो गई थी। पहली नजर में मुझे तो ऐसा भ्रम हुआ कि देवनाथ द्वार पर खडे मेरी ओर देखकर मुस्‍करा रहे हैं। मैं मिथ्‍यावादी नहीं हूं और आत्‍मा की दैहिकता में मुझे संदेह है, लेकिन उस वक्‍त एक बार मैं चौंक जरूर पडा हृदय में एक कम्‍पन-सा उठा; लेकिन दूसरी नजर में प्रतिमा मिट चुकी थी।
द्वार खुला। गोपा के सिवा खोलनेवाला ही कौन था। मैंने उसे देखकर दिल थाम लिया। उसे मेरे आने की सूचना थी और मेरे स्‍वागत की प्रतिक्षा में उसने नई साड़ी पहन ली थी और शायद बाल भी गुंथा लिए थे; पर इन दो वर्षों के समय ने उस पर जो आघात किए थे, उन्‍हें क्‍या करती? नारियों के जीवन में यह वह अवस्‍था है, जब रूप लावण्‍य अपने पूरे विकास पर होता है, जब उसमें अल्‍हड़पन चंचलता और अभिमान की जगह आकर्षण, माधुर्य और रसिकता आ जाती है; लेकिन गोपा का यौवन बीत चुका था उसके मुख पर झुर्रियां और विषाद की रेखाएं अंकित थीं, जिन्‍हें उसकी प्रयत्‍नशील प्रसन्‍नता भी न मिटा सकती थी। केशों पर सफेदी दौड़ चली थी और एक एक अंग बूढा हो रहा था। मैंने करूण स्‍वर में पूछा क्‍या तुम बीमार थीं गोपा।
गोपा ने आंसू पीकर कहा नहीं तो, मुझे कभी सिर दर्द भी नहीं हुआ। ‘तो तुम्‍हारी यह क्‍या दशा है? बिल्‍कुल बूढी हो गई हो।’
‘तो जवानी लेकर करना ही क्‍या है? मेरी उम्र तो पैंतीस के ऊपर हो गई!
‘पैंतीस की उम्र तो बहुत नहीं होती।’
‘हाँ उनके लिए जो बहुत दिन जीना चाहते है। मैं तो चाहती हूं जितनी जल्‍द हो सके, जीवन का अंत हो जाए। बस सुन्‍न के ब्‍याह की चिंता है। इससे छुटटी पाऊँ; मुझे जिन्‍दगी की परवाह न रहेगी।’
अब मालूम हुआ कि जो सज्‍जन इस मकान में किराएदार हुए थे, वह थोडे दिनों के बाद तबदील होकर चले गए और तब से कोई दूसरा किरायदार न आया। मेरे हृदय में बरछी-सी चुभ गई। इतने दिनों इन बेचारों का निर्वाह कैसे हुआ, यह कल्‍पना ही दु:खद थी।
मैंने विरक्‍त मन से कहा—लेकिन तुमने मुझे सूचना क्‍यों न दी? क्‍या मैं बिलकुल गैर हूँ?
गोपा ने लज्जित होकर कहा नहीं नहीं यह बात नहीं है। तुम्‍हें गैर समझूँगी तो अपना किसे समझूँगी? मैंने समझा परदेश में तुम खुद अपने झमेले में पडे होगे, तुम्‍हें क्‍यों सताऊँ? किसी न किसी तरह दिन कट ही गये। घर में और कुछ न था, तो थोडे—से गहने तो थे ही। अब सुनीता के विवाह की चिंता है। पहले मैंने सोचा था, इस मकान को निकाल दूंगी, बीस-बाइस हजार मिल जाएँगे। विवाह भी हो जाएगा और कुछ मेरे लिए बचा भी रहेगा; लेकिन बाद को मालूम हुआ कि मकान पहले ही रेहन हो चुका है और सूद मिलाकर उस पर बीस हजार हो गए हैं। महाजन ने इतनी ही दया क्‍या कम की, कि मुझे घर से निकाल न दिया। इधर से तो अब कोई आशा नहीं है। बहुत हाथ पांव जोड़ने पर संभव है, महाजन से दो ढाई हजार मिल जाए। इतने में क्‍या होगा? इसी फिक्र में घुली जा रही हूं। लेकिन मैं भी इतनी मतलबी हूं, न तुम्‍हें हाथ मुंह धोने को पानी दिया, न कुछ जलपान लायी और अपना दुखड़ा ले बैठी। अब आप कपडे उतारिए और आराम से बैठिए। कुछ खाने को लाऊँ, खा लीजिए, तब बातें हों। घर पर तो सब कुशल है?
मैंने कहा—मैं तो सीधे बम्‍बई से यहां आ रहा हूं। घर कहां गया।
गोपा ने मुझे तिरस्‍कार—भरी आंखों से देखा, पर उस तिरस्‍कार की आड़ में घनिष्‍ठ आत्‍मीयता बैठी झांक रही थी। मुझे ऐसा जान पड़ा, उसके मुख की झुर्रिया मिट गई हैं। पीछे मुख पर हल्‍की—सी लाली दौड़ गई। उसने कहा—इसका फल यह होगा कि तुम्‍हारी देवीजी तुम्‍हें कभी यहां न आने देंगी।
‘मैं किसी का गुलाम नहीं हूं।’
‘किसी को अपना गुलाम बनाने के लिए पहले खुद भी उसका गुलाम बनना पडता है।’
शीतकाल की संध्‍या देखते ही देखते दीपक जलाने लगी। सुन्‍नी लालटेन लेकर कमरे में आयी। दो साल पहले की अबोध और कृशतनु बालिका रूपवती युवती हो गई थी, जिसकी हर एक चितवन, हर एक बात उसकी गौरवशील प्रकति का पता दे रही थी। जिसे मैं गोद में उठाकर प्‍यार करता था, उसकी तरफ आज आंखें न उठा सका और वह जो मेरे गले से लिपटकर प्रसन्‍न होती थी, आज मेरे सामने खडी भी न रह सकी। जैसे मुझसे वस्‍तु छिपाना चाहती है, और जैसे मैं उस वस्‍तु को छिपाने का अवसर दे रहा हूं।
मैंने पूछा—अब तुम किस दरजे में पहुँची सुन्‍नी?
उसने सिर झुकाए हुए जवाब दिया—दसवें में हूं।
‘घर का भ कुछ काम-काज करती हो।
‘अम्‍मा जब करने भी दें।’
गोपा बोली—मैं नहीं करने देती या खुद किसी काम के नगीच नहीं जाती?

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